Tuesday 24 April 2012

पापा की टेलीपेथी

जानती हूँ सबको एक दिन जाना होता है.. मुझे याद है जब माँ हॉस्पिटल में थी और भाई साहब भाव विह्वल होकर खुद को सम्हाल नहीं पा रहे थे. उन्होंने झिंझोड़ कर माँ को कहा, "माँ तू मुझे छोड़ कर मत जा, मई तेरे बिना नहीं रह पाउँगा ..." फिर माँ ने अपनी टूटी उखडती साँसों को सम्हाल भाई साहब को जोर से दांता, "तुझे क्या लगा की माँ बाप हमेशा रहेंगे? किसी के माता पिता हमेशा साथ नहीं रहते. हमने तुझे इतना बड़ा बना दिया की तुम अब खुद की और दूसरों की देखभाल कर सको. ...
माँ बीमार थी..जीवन और मृत्यु के अटूट नियमों को हमेशा रेखांकित करती रही..माँ के बीमार रहने के कारण दुखी मन से ही सही पर हम सब धीरे धीरे उसी अनुपस्थिति को बर्दाश्त करने लायक हो रहे थे..पर पापा..उनकी उत्कट जिजीविषा और लंबी लंबी योजनाओं के अम्बार..गरजती आवाज़ में ये कहना कि .."बेटे चिंता नहीं, अभी हम जिन्दा हैं"..कभी हम सब ये सोच ही नहीं पाए कि पापा के बिना भी जीना होगा...

जब भी घर फोन करती तो माँ फोन उठाती, मैं कहती पापा कि आवाज़ सुननी है..फिर पापा माँ को कहती आप कुछ भी बोलिए वो सुनेगी..पापा इमोशनल हो जाते....मेरी आवाज़ तो सुन नहीं पाते पर अंदाजा लगते कि बेटी अब ये कह रही होगी, अब ये पूछ रही होगी..और इस तरह से मोनोलोग स्टाइल में बोलते जाते जैसे श्रोता भी वही हों और वक्ता भी.."ठीक है न, मैं भी ठीक हूँ, तुम अपने स्वास्थ्य पर ध्यान देना, और पैसे चाहिए क्या..खाना ठीक से खाना और जूस जरूर पीना..फिर माँ से पूछते मैंने सही सही तो जबाब दिया न..माँ हंस पड़ती..कहती जब आपने सुना ही नहीं कि उसने क्या पूछा तो आप जबाब कैसे दे रहे थे..तो फिर पापा रहस्यमयी आवाज़ में कहते ये बाप-बेटी के बीच कि टेलीपेथी है..कान नहीं काम करते तो क्या हुआ, मुझे सब पता है..

Saturday 15 October 2011

टू माय फादर अनूप: एक अज्ञात मैथिल क्रान्तिकारी कवि की कहानी

दहक कवि ललकार कनिए,
क्रांति के तलवार चाही
आई मिथिलांचलक जनके
भैरवी हुंकार चाही॥- एन पंक्तियों को लिखने वाले क्रांतिकारी मैथिल कवि रूप नारायण चौधरी 'अनूप' जिस तरह गुमनामी में पूरी जिन्दगी छुपे रहे कि किसी पड़ोसी को भी पता न चला हो कि उनके आस पास वो शख्स रहता था जिसने सन सतहत्तर के जे पी आन्दोलन में प्रशासन की नींव हिला दी थी।

क्रान्ति का अव्ह्वाहन करने वाले, प्रगतिशील और धर्म निरपेक्ष कवि अनूप ने न सिर्फ शब्दों में अपने उसूलो को जिया बल्कि जीवन भर शंघर्ष को ही प्राण का पर्याय बनाये रहे। हालांकि वो बीजेपी के कट्टर समर्थक और बाजपेयी के प्रंशसक थे, फिर भी उनकी आत्मा उद्वेलित हो उठी जब धर्मान्धता के तूफ़ान में हिन्दू कारसेवको ने बाबरी मस्जिद को नष्ट कर डाला:
"मंदिर मस्जिद गुरुद्वारों में बांटो मत भगवान् को,
मज़हब की दीवार खड़ी कर बांटो मत इंसान को।
हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, एक चमन के फूल हैं,
खिलने दो, खिल कर हसने दो कलि कलि के प्राण को।

चार फरबरी १९४५ को बसंतपंचमी के दिन, दरभंगा जिले कि पंचोभ गाँव में कवि अनूप का जन्म हुआ था। बचपन से ही उनकी बहुमुखी प्रतिभा चन्दन कि तरह मिथिलांचल को सुवासित करती रही। सातवी कक्षा में लिखी उनकी कविता 'सिनुरिया आम' आज भी कई बारे बूढों को याद आ जाती है। गाँव के पहले हाई स्कूल - देव नारायण उच्च विद्यालय के प्रथम बैच में अनूप कि प्रतिभा शुरू से ही उनके शिक्षको को चकित करती रही। चाहे सांस्कृतिक गतिविधियाँ हो, या वाद विवाद प्रतियोगिताये, हर जगह अनूप ने अपनी प्रतिभा सिद्ध की.

कवि अनूप ने बनारस हिन्दू विश्व विद्यालय से हिंदी में स्नातकोत्तर कि डिग्री प्राप्त की और साथ साथ दर्शनशास्त्र और संस्कृत में शास्त्री की उपाधि भी ली. प्रतिभाशाली अनूप अपने गुरु हजारी प्रसाद द्वेदी के चाहते शिष्य थे। बी एच यू में पढाई के दौरान भी उन्होंने सांस्कृतिक मंचो पर विश्वविद्यालय का प्रतिनिधित्व किया.
एक प्रखर वक्ता होने की वज़ह से वे राजनितिक संगठनो की नजर में थे ..कई लोग उन्हें अपने दल में शामिल करना चाहते थे ..पर मूल रूप से उनका ह्रदय काव्य में बस्ता था और राजनितिक जीवन बहुत ज्यादा सफल नहीं रहा..आपातकाल के दौरान मीसा वारंट में उन्हें काफी दिन छुप कर रहना पड़ा था..ऊपर से अपने विद्यार्थियों के बीच वे बहुत लोकप्रिय थे, इसी वज़ह से छात्र आन्दोलन और आपातकाल के दौरान जब भी वे गिरफ्तार हुए उन्हें थाणे से छुड़ा लिया गया और वे जेल में कभी रहे नहीं..कुछ लोग बताते हैं की एक बार तो उन्हें गिरफ्तार करने वाले दारोगा को बेगुसराय की छात्राओं ने दुपट्टे से कुर्सी में बाँध दिया और थाणे से अपने प्रिय शिक्षक को ले आये...
उस समय राजनीति उनके सर चढ़ कर बोल रही थी..प्रदेश के कई नेता उन्हें अपने टक्कर का प्रतिद्वंदी भी मानते थे..लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियां भी मुह बाये खड़ी थीं..
कवि अनूप ने अपने करियर के शुरूआती दौर में एक कॉलेज में हिंदी पढ़ानी शुरू की और वहां भी वे छात्रो के बीच जल्दी ही प्रसिद्ध हो गए..लेकिन  हर गलत बात पर विरोध करने की उनकी आदत यहाँ भी आड़े आई और जल्दी ही उन्होंने कॉलेज छोड़ कर स्कूल ज्वाइन कर लिया. 

कवि के शब्द

.....मै कवि की बेटी हूँ मुझे कवि के शब्द चाहिए...
.....
तुम कवि की बेटी ही नहीं कवि की रचना भी हो
तुम्हारी सफलता में मेरे कवित्व की सार्थकता है...
....तुम्हारा पापा

Sunday 14 August 2011

पिता नही थे सिर्फ हमारे लिए तुम

पिता नही थे सिर्फ हमारे लिए तुम
एक बरगद जिसकी छांव में जीना सीखा
थाम कर उंगलिया सीखा इन पैरो ने चलना

और  सोचा था थामेंगे कभी
इन हाथों को भी मजबूती बन कर

हमारा होना..हमारा हंसना और हमारा रोना
जिसके लिए थी नेमत
और हम बने थे तुम्हारी हर कोशिश से

हमारे लिए वो नही था सिर्फ जाना तुम्हारा
मुस्कराते गए आखिरी सांस तक तुम
नीलकंठ सा सारा ज़हर समेट
तुम्ही ले गये वो सारी शुरुआते
द्वन्द, संघर्ष और दुःख भी
जो दूर किये रही पिता हमें तुमसे..

आँखे ढूंढती है पिता उन शब्दों को...
चिंता मत करो अभी हम जिन्दा हैं..
और कान भटकते हैं एहसास की खोज में
जो तुमसे होती थीं..ओउर कहती थी
मै फिर आऊंगा.....

Tuesday 19 April 2011

The making of a Maithili Poet -Anoop

I am his daughter and I can just imagine about his childhood, recalling what I heard from him and some of his relatives. Yet I am so much fascinated about everything that I know about him, I am bound to write it.

He was born in a village-- Panchobh, which is situated in Darbhanga district of Bihar [India]. Born in a landlord's family, Anoop, [my father] was a soft nature boy. In stead of rebuking and ordering his servants like his other brothers and cousins did, Anoop had befriended their children too. His cousins made fun of him for this. At the time when other brothers collected ripen mangoes from the orchard, Anoop sat down under a tree and admired the beauty of the green trees and bright fruits. He liked sitting in the orchard for hours and wrote his first poem-- "Sinuriya aam [a type of mango]

The signs of his creativity were clear from the very childhood. Anoop used to make sentences sound rhythmic whenever he said anything in jolly mood. He loved poems and recited poems loudly. He was in the first batch of his village school, and he had won heart of his teachers with his bold and melodious voice. By the time he reached in class eighth, all teachers had realized that Anoop had some potentials to be a great leader as well as poet.



Monday 18 April 2011

With him..without him

I remember the last time we sat together was at Faridabad in my sister's flat. Papa was sitting in a chair and I put my head over his shoulder. It was dusk and the sky was growing darker with looming redness of evening. There were birds chirping their evening songs after returning back to their nests on a tress. Though, it was not so peaceful, but there was a silence soothing both of us in the balcony where we sat and looked at the sun.

He told me to publish the poems I had written so far. There were many of his own poems lost among the waste papers in the galleries of life and he did not want the same with my creativity. Papa was keen to see my sis Rashmi and me on the top of world and that too in front of his eyes....Alas I would have done so  and made him proud..!

My father, who loved dreaming

He was my father...My idol, my friend and philosopher. It was him whom I owe everything. He was a poet, a scholar, a creative and imaginative person, who could change the words in magic and tune them with melody of nature. He was my first love and last fascination. I remember saying once to my mother if I could ever find a guy like Papa. She had simply smiled and said-"you need not search for another. He is here to love you as father."